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...या देवी सर्व-भूतेषु दया-रूपेण
संस्थिता; नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः...
ज्यों-ज्यों
दुर्गा पूजा का महा-पर्व निकट आता है, मेरे कानों में ऐसे मंत्र स्वतः
गूंजने शुरू हो जाते हैं। वैसे तो मैं अतिशयोक्ति अलंकार का बड़ा प्रेमी नहीं हूँ, पर मैं अवश्य ही बारिश के
मौसम में मोरों को होने वाले आनंद की तुलना अपनी प्रसन्नता से कर सकता हूँ जो मुझे
दुर्गा-पूजा के निकट आने पर होती है। लोग
कलेंडरों में दुर्गा-पूजा की तारीख ढूंढते होंगे; मुझे हवा की सुगंध से पता
चल जाता है कि दुर्गा-पूजा का मौसम आ गया है।
पहली
पूजा से ले कर दसवीं पूजा यानि विसर्जन तक मैं किसी और ही दुनिया में रहता हूँ। जब
से मैंने गिनती सीखी होगी तब से मैं दुर्गा-पूजा के दौरान घर और मोहल्ले के
पूजा-पंडाल से बीच लट्टू की तरह नाचता फिरता था।
सुबह
तड़के उठ कर मोहल्ले के दोस्तों के साथ पुष्प-बाहुल पार्कों में दूसरे मोहल्ले के
बच्चों से पहले पहुँच कर सारे फूल तोड़ लाने पर जो विजय-श्री की अनुभूति होती थी वो
अद्वितीय थी। फूलों के लिए गैंग-वार होते थे हमारे बीच। झोली भर फूल ले कर जब हम
घर लौटते तो माँ ऐसी प्यार भरी निगाहों से देखती थी मानो मैं दुनिया का सबसे अच्छा
बेटा हूँ। उसके बाद शुरू होता था पापा का पूजा-पाठ। उनकी बुलंद और स्पष्ट आवाज़ में
उच्चरित पूजा के मंत्र सारे घर में ऊर्जा भर देते थे। उनकी ऊंची आवाज के तले
धीमे-धीमे हमने भी मंत्रोच्चारण सीखा किन्तु तमाम कोशिशों के बावजूद आज तक हमारे
मंत्र उतने ओजस्वी नहीं हो पाए हैं जितने पापा के होते हैं। अपनी छोटी सी पूजा
समाप्त करके हम बच्चे बड़े आराम से साइलेंट मोड में टीवी देखते या विडीयो गेम खेलते
क्यूंकि हमें पता होता था कि पापा अगले दो घंटे दुर्गा-माँ से बातें करेंगे। जैसे
ही उनकी पूजा समाप्त होती हम सभी भाई आरती करने के लिए दौड़ पड़ते। आरती करना तो हमें
पसंद था ही पर उससे कहीं ज़्यादा खुशी हमें इस बात की होती थी कि आरती के बाद हमे
कुछ खाने को मिलेगा क्यूंकि पूजा समाप्त होने तक हमें भूखे पेट रहना होता था। और
माँ के हाथों का बना प्रसाद। वाह! तब से ले कर आज तक दुनिया में क्या कुछ नहीं
बदला होगा, लेकिन एक चीज़ बिलकुल नहीं बदली, वो है दुर्गा-पूजा का
प्रसाद। चाहे वो घर में माँ का बनाया हुआ प्रसाद हो या मोहल्ले के पूजा-पंडाल में
बना भोग। दिन का अधिकांश वक़्त मेरा पूजा पंडाल पर ही बीतता था। जूनियर मेम्बर का
बैच लगा कर हम बच्चे खुद को स्कॉट-लैंड यार्ड से कम नहीं समझते थे। काम कई सारे
होते थे, और हर
कोई चाहता था कि वो ही सारे काम कर ले। श्रद्धालुओं को आरती देना, टीका लगाना, प्रसाद बांटना, प्रधान पुजारी की सहायता
करना,
छोटी-मोटी ख़रीदारी करना, पंडाल के सामने सड़क पर ट्रैफिक नियंत्रित करना, चाट-फुचके-चिप्स-चिक्की खाने-
जैसे सैंकड़ों काम होते थे। इसलिए हम आपस में शिफ्ट-सिस्टम से काम का बंटवारा करते
थे। मैं कोशिश करता था कि ज़्यादा समय मुझे ही प्रसाद बांटने को मिले। ना ना, मैं प्रसाद जूठा नहीं
करता था। दर-असल प्रसाद लेने के लिए आने वाले श्रद्धालुओं से बातें करना मुझे बेहद
पसंद था और दुर्गा- माँ से नज़रें चुरा कर कभी-कभी मैं सुंदर-सुंदर श्रद्धालुओं को
भी देख लिया करता था। दोपहर की पूजा से ले कर शाम की संध्या-आरती तक मेरा ठिकाना
पूजा-पंडाल ही होता था। आरती के समय मैं एक-टक माता की प्रतिमा को निहारा करता था
और कई बार पूजा के दौरान रात में सोते समय मैं मनाया करता था कि काश मुझे माता के
दर्शन मिल पाते। सुबह होती, और फिर वही दिनचर्या। इस तरह दुर्गा पूजा के दस दिन यूं
ही हसते-खेलते बीतते थे। फिर प्रतिमा का विसर्जन होता (जिसके लिए मुझे नदी-तट पर
जाने की अनुमति नौवीं कक्षा से पहले नहीं मिली) और बड़े भारी दिल से मैं वापस घर को
लौटता। और अगले दिन वापस स्कूल खुल जाएगा, यह सोच कर तो दिल और बैठ
जाता।
इस
साल भी मैं एक महीने पहले से उत्साहित था। नौकरी के प्रति कुछ ज़्यादा वफादार होने
की वजह से पहले से छुट्टी की प्लानिंग नहीं कर पाता मैं और टिकट न ले पाने के कारण
कई बार पापा से फटकार भी सुननी होती है। पिछले दो-तीन सालों से मैं पूजा में घर
नहीं जा पाया था। हर साल पूजा के दौरान कोई न कोई ज़रूरी काम टपक पड़ता था और मैं
तड़प कर रह जाता था। ये सोच कर तसल्ली कर लेता था कि जब दुर्गा-माँ की इच्छा होगी, वो स्वतः बुलाएंगी मुझे।
और, इस साल
वो मौका मेरे हाथ लगा था। जैसे-तैसे ट्रेन के टीटी को पूजा का वास्ता दे कर मैंने
एक सीट पर कब्जा जमाया। अपने शहर पहुँच कर जब मैंनें उन चित-परिचित गलियों को देखा
तो मुझे ‘वीर-जारा’ सिनेमा का आखिरी दृश्य
याद हो आया जब हिन्दुस्तानी कैदी पाकिस्तान के जेल से रिहा हो कर भारत लौट रहे
होते हैं और मेरी आँखें भर आयीं। यादों के पुलिंदे खुल गए और बड़ी मुश्किल से अपने
आप को संभाल के मैं घर तक पहुँचा।
दुर्गा-पूजा
के मौसम की उसी मादक सुगंध ने मुझे आनंदित कर दिया। बिलकुल वही वातावरण। वही
स्नेह। वही फूल। वही मंत्र। वही प्रसाद। वही प्रतिमाएँ। कुछ बदला था तो वो यह कि
अब बागीचों से फूल लाने का काम पड़ोस के बच्चे करने लगे हैं; यह कि पापा के बाल और दाढ़ी कुछ ज़्यादा
सफ़ेद हो चले हैं; यह कि माँ के ललाट और सुंदर चेहरे पे उम्र की कुछ
लकीरें दिखाई देने लगी हैं और यह कि मेरा पतले छरहरे शरीर ने उन्नति कर ली है और
मेरे घुँघराले बालों वाले कपाल ने अवनति। किन्तु दुर्गा-माँ की उस पुरानी तस्वीर
में कोई शिकन नहीं आई थी अब तक। दुर्गा-माँ हर साल की तरह ही इस साल भी बिलकुल नई
थी। बिलकुल निर्जरा। हम मानव कितने तुच्छ हैं उस महा-शक्ति के आगे और एक दिन हम
सभी को नष्ट हो जाना है -यह भाव बोध मुझे उद्वेलित भी कर रहा था। मेरे बड़े भाइयों
की शादी हो गयी है और वो भी मेरी ही तरह बड़ी मुश्किल से दशहरे पर घर आ पाते हैं। पापा
के सेवा-निवृत होने में दो वर्ष शेष हैं और इसलिए माँ-पापा को घर पर अकेले रहना होता
है। उनके चेहरे को देखने मात्र से ही बोध हो जाता है कि अपने नन्हें पखेरूओं को उड़ना
सिखा कर आज वो अपने घोंसले में कितने एकाकी हो गए हैं। खैर, सभी सदस्यों के घर में पुनः एक-जुट
होने से माँ-पापा के चेहरे खिल उठे थे तथा पूजा का मौसम और भी प्रसन्नता-पूर्ण बन
गया था।
शाम
होते ही मैं पूजा-पंडाल गया। सभी पुराने मेम्बर अब वृद्ध हो चले थे और कुछ मुझ
जैसे जूनियर मेम्बर प्रौढ़-से दिख रहे थे। वो कोई काल-चक्र से परे थोड़े न हैं। कुछ
नए किशोर पूजा कमिटी के सदस्य बन गए थे और कई पुराने मेम्बर दिखाई नहीं दे रहे थे।
बदलाव ही तो चिर-निरंतर है इस विश्व में।
पंडाल
में आरती करने के बाद जब मैं शाम का भोग बाँट रहा था तो मेरी आँखें बार-बार एक चिक्की
बेचने वाली महिला की तरफ खिंच रही थी। उसका चेहरा मुझे न जाने क्यूँ बहुत जाना-पहचाना
लगा। ताज्जुब मुझे तब हुआ जब मैंने गौर किया कि वो भी कातर निगाहों से मुझे बीच-बीच
में देख रही है। मैंने बहुत कोशिश की याद करने की मगर मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था।
इस शांत शहर के बाहर की उस दुनिया में जहां मैंने पढ़ाई की और जहां मैं नौकरी कर
रहा हूँ, वहाँ
इतनी सारी नयी-नयी यादों ने मेरे दिमाग में घर बना लिया है कि बचपन की कई सारी
यादें अब विस्मरित हो चली हैं। लेकिन, जब आपका ध्यान किसी ऐसी चीज़ पे चला
जाता है जो आपके मस्तिष्क के लिए कोई चुनौती खड़ी कर दे तो उस पर से ध्यान हटा पाना
असंभव हो जाता है। कोई तो बात थी उस साधारण चिक्की वाली महिला में जो मुझे
आत्मीयता का बोध करा रही थी। मुझे पता नहीं कि मैं कब एक नव-युवक को भोग बांटने के
काम में लगा कर उस महिला के पास पहुँच गया, कब मैंने उस-से एक चिक्की
का पैकेट मांगा और कैसे मैं हत-प्रभ रह गया जब उसने मुझसे कहा- “कैसे हो आदित्य
भैया?” मेरे चेहरे पर पहचान का
कोई भी भाव नदारद पा कर उसने फिर कहा- “नहीं पहचाना भैया? मैं हूँ- गौरी। कितने बदल
गए हो आप?”
सहसा
ही मैंने उसे पहचान लिया। छुटकी सी थी वो जब मैं बचपन में उसके पिता से चिक्की
खरीदा करता था। 50 पैसे का एक पैकेट। मैं भी छोटा ही था और शायद दोनों हम-उम्र थे।
वो अपने पिता के साथ खड़ी रहती थी और मैं चिक्की खाते खाते उससे भी बातें किया करता
था। वो स्कूल नहीं जाती थी और मैं अपनी माँ से कई-बार पूछा करता था कि गौरी स्कूल
क्यूँ नहीं जाती? मेरे दोस्त मुझे चिढ़ाते थे कि मुझे चिक्की वाले की बेटी
पसंद है और मैं भी आगे चिक्की ही बेचूंगा। मगर मेरा बहुत मन होता था कि वो भी मेरी
तरह पढ़ाई करे। मुझे ज़्यादा तो याद नहीं पर इतना ज़रूर याद है कि मैं अक्सर सोचा
करता था कि यदि मेरे पास पैसे होते तो मैं उसकी फीस भर देता। मैं अपनी पुरानी
किताबें भी हर साल दुर्गा-पूजा के समय उसको दे दिया करता था। उसको पढ़ने-लिखने का
बहुत शौक था और मुझ से ज़्यादा कविताएं उसको याद थीं। उसके पिता भी बहुत लाड़ देते थे मुझे। मुझ से
पैसे भी लेना छोड़ दिया था उन्होने चिक्की के। वो कहते थे कि गौरी और मैं पिछले जनम
के भाई-बहन थे। हर साल दुर्गा-पूजा के समय मुझे उससे मिलने का भी उत्साह रहता था।
तीन-चार साल तो बाप-बेटी से पूजा के दौरान मैं मिला। फिर अचानक से उनका वहाँ आना
बंद हो गया। पूजा के दौरान मैं उन्हे आस-पास के पूजा-पंडालों में भी ढूँढता था, लेकिन वे मुझे कहीं नहीं
दिखे।
और
आज, इतने
दिनों के बाद। मुझे बड़ा अफसोस हुआ कि मैं उसे क्यूँ नहीं पहचान पाया। क्या कहा
उसने- मैं बहुत बदल गया? मुझसे कहीं ज़्यादा तो वो बदल गयी थी। कितनी बड़ी लग रही
थी वो। और उसके चेहरे पर वो उत्साह और वो चंचलता भी तो नहीं झलक रही थी। एक मिनट, उसने सफ़ेद साड़ी क्यूँ
पहनी थी? और
आखिरकार वो अकेली चिक्की क्यूँ बेच रही थी? मुझे बड़ा विस्मय हुआ। मैंने प्रयास किया उसकी
आँखों को देख के कुछ पता करने का, मगर आँखेँ उसकी भाव-शून्य थीं। बिलकुल सूखी। मानो इन
आँखों ने रो-रो कर सारे आँसू भी खो दिये हों। बचपन की वो प्यारी सी गौरी के साथ
काल-चक्र ने क्या खेल रचाया होगा यह सोच कर मैं घबरा भी रहा था। मैंने हिम्मत कर
के उससे पूछा- “पिता जी नहीं आते आज कल? और तुम दोनों अचानक से कहाँ गायब हो
गए थे?”
उसने
एक बच्चे को चिक्की पकड़ा कर धीरे से कहा- “पिता जी गुजर गए थे, और माई की तबीयत भी अच्छी
नहीं रहती थी, इसलिए व्यापार बंद हो गया”। मैं उसके पिता की मृत्यु पर
शोक भी नहीं जता पाया था कि उसने फिर कहा- “माई ने घरों में साफ-सफाई का काम पकड़
लिया और मैं उसी के साथ काम पे जाती थी। मेरी शादी होने तक वो काम करती रही और
शादी करा के छः महीनों बाद वो भी मुझे छोड़ कर चली गयी। “ उसे अभी भी मुझमे इतना
अपनापन दिख रहा था कि बड़ी सरलता से वो अपनी कहानी मुझे सुनाती गयी। आँसू का एक
कतरा उसकी आँखों से नहीं बहा। मुझे बड़ी लज्जा आई कि मेरी आँखें अपने शहर पहुँच कर
ही अश्रु-पूरित हो उठती हैं और एक स्त्री हो कर इसमें कितना धैर्य है।
शाम
ज़्यादा हो गयी थी तो वो मुझसे विदा ले कर अपने घर के लिए निकल गयी।
घर
पहुँच कर भी मुझे निरंतर उसी का विचार आ रहा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं
उसके लिए क्या करूँ। उसकी सफ़ेद साड़ी भी मुझे काफी विचलित कर रही थी।
खैर, दशहरे की आठवीं पूजा थी
और पूजा-पंडाल में शाम की आरती करने के बाद मैं उसके आने का इंतज़ार करने लगा। आज
वो अपनी गोद में अपने शिशु को भी ले के आई थी। मैंने झट-पट उसको खुद की लिखी चंद कहानियों
का संग्रह दिया क्योंकि मुझे याद था उसे पढ़ने का बहुत शौक है। उसने बताया कि वो
मुझको दिखाने के लिए ही अपने बच्चे को ले
कर आई थी। मैं उसके शिशु को देखते ही समझ गया कि उसका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। जब
उसने भी इस बात की पुष्टि की तो मैंने दवा इत्यादि के लिए उसको कुछ पैसे दिये।
काफी हठ करना पड़ा और ढेर सारी चिक्की भी लेनी पड़ी उस से मुझे, तब जा कर उसने पैसे
स्वीकार किए।
बचपन
में मैंने उसको अपने परिवार का हिस्सा बना लिया था और उसी हैसियत से नौवीं पूजा की
शाम को जब वो काम पे आई तो मैंने उसको पूजा के उपलक्ष्य पर एक साड़ी भेंट देनी चाही।
मैंने तो अपनी पसंद से एक अच्छी रंग-बिरंगी साड़ी ली थी उसके लिए, मगर जैसे ही मैंने वो
साड़ी उसको दिखने के लिए खोली, उसकी आँखों से आंसुओं की धार बह निकली। मुझे पूरा माजरा
समझते हुए देर नहीं लगी और जब उसने बताया कि
कैसे जहरीली शराब के चपेट में आ कर उसका पति अल्पायु में ही दुनिया छोड़ गया
तो मैंने उसको सहानुभूति देने का प्रयास किया। किन्तु उसके इस सवाल ने मेरे सारे
शब्द छीन लिए- “भैया, दुर्गा-माँ तो हर जगह हैं, उन्हे मेरी व्यथा दिखाई
नहीं देती? अब एक मेरा बच्चा ही मेरा सहारा है। भैया, आप तो माँ से बहुत स्नेह
रखते हो। उनसे विनती करो न कि मेरे बच्चे को जल्दी अच्छा कर दे।“
मैंने
मन ही मन मैया से विनती भी की और गौरी को शांत भी कराया। किन्तु खुद अशांत-चित्त
हो गया। मुझे समझ नहीं आया कि मैं किस प्रकार गौरी के चेहरे पर वही मासूमियत और
वही प्रसन्नता का भाव लौटा सकूँ।
मैंने
खुद के जीवन से गौरी के जीवन की मन ही मन तुलना की। बचपन से ही मुझे पढ़ने-लिखने का सौभाग्य प्राप्त
हुआ। पिता-जी अध्यापक थे, सो स्कूल फीस में भी रियायत मिल जाती थी। मगर चिक्की
बेच-बेच कर भी गौरी के पिता इतने पैसे नहीं जुटा पाते थे की वो पढ़-लिख सके। मैंने
उससे सहानुभूति रखता था बचपन में मगर जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया और उच्च-शिक्षा
के लिए शहर से बाहर चला गया, मेरे जीवन में लगातार बदलाव आते गए। पुराने दोस्त बदले-
नए बन गए। पुरानी आदतें बदलीं- नई बन गईं। और फिर मुझे कभी गौरी का स्मरण ही नहीं
हुआ। जब मैं एक के बाद एक डिग्रियाँ बटोर रहा था, गौरी अपने पिता की मृत्यु
का मातम मना कर घर-घर झाड़ू-पोछा लगाती फिर रही थी। जब मैं कॉलेज में पढ़ाई-लिखाई और
मौज-मस्ती के नए नए रिकॉर्ड कायम कर रहा था तो गौरी अपनी माँ का अंतिम संस्कार कर
रही थी। मैंने कॉलेज से डिग्री हासिल कर नौकरी पकड़ी तो गौरी को अपने शराबी पति के
स्वर्गवास के बाद आजीविका चलाने के लिए नौकरी करनी पड़ी। मैं अपने परिवार के बाल-सदस्यों
के लिए मिठाई आदि लाया करता हूँ और गौरी के पास अपने बच्चे को स्वस्थ रख पाने तक
के लिए पैसे नहीं हैं।
“भैया, ये साड़ी आप मेरी भाभी को
दे देना, मेरी
तरफ से” गौरी ने आँसू पोंछते हुए कहा। मैं विचारों की दुनिया से बाहर आया और रुँधे
गले से उसको अलविदा कह के वापस आ गया।
मैं
रात भर चैन से सो नहीं पाया। मुझे लगा मानो मेरी हर हंसी व्यर्थ है अगर मैं किसी
एक इंसान के आँसू न पोंछ पाया तो। अगले दिन विसर्जन था और दुर्गा-माँ हर साल की
तरह हम लोगों से विदा होने वाली थी। और अगली रात को ही मेरी वापसी की ट्रेन टिकट
भी थी। मैं बड़ा व्याकुल था। कुछ तो करना था मुझको।
अगले
दिन संध्या आरती के बाद मैं पुनः गौरी से मिला और उसके बच्चे का हाल पूछा, जो मैं पहले से ही जानता
था। मैंने उसको बताया कि मुझे उसी रात वापस जाना था। उसने शांत-भाव से कहा-“अगली
बार जब आओगे भैया, तो मुझे पहचान लोगे ना? “ मैंने अपनी आँखों से बह
निकलने के लिए बेकल अपने आंसुओं को एक छोटी सी मुस्कान के बांध से रोका और बस इतना
कह पाया- “हाँ पगली। अब मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगा।“ एक हल्की
सी मुस्कान से मेरा जवाब दे कर गौरी ने अपना सामान समेटा और घर जाने लगी। मुझे न
जाने क्या हुआ कि मैं भी उसके पीछे पीछे उसके घर तक जा पहुंचा। दर-असल उसका घर एक
छोटी सी झोपड़ी थी जो उसने नाले और तटवर्ती घरों के बीच की जगह में बसा ली थी। मैं
उसको उसकी झोपड़ी में जाते हुए देखता रहा और जब वो नज़रों से ओझल हो गयी तो मैं पुनः
पूजा पंडाल की तरफ मुड़ गया- प्रतिमा-विसर्जन में जाने के लिए।
विसर्जन
के समय एक अजीब सी खल-बली मची होती है मेरे अंदर। भक्ति और दुख का अनूठा समावेश।
दस दिनों तक हमारे साथ रह कर विसर्जन के बाद दुर्गा माँ अपने घर चली जाती है- ऐसा
लोग कहते हैं।
विसर्जन
के समय रास्ते भर माता के जयकारे हो रहे थे और लोग झूम रहे थे। मैं माता के चेहरे
को एक-टक निहार रहा था मानों किसी छोटे बच्चे को छोड़ के उसकी माँ हमेशा के लिए
कहीं जाने वाली हो। मैं हाथ जोड़ कर
बारंबार गौरी की खुशियों के लिए कामना भी कर रहा था। काश माता ही कोई उपाय सुझा दे
गौरी को और उसके जीवन-पथ से भटका हुआ सुख वापस आ कर उसे खुशियाँ दे सके। इन्ही
विचारों मे खोया हुआ और माता के जयकारे लगाता हुआ मैं दल के साथ नदी-तट पहुँच गया।
उस समय तक तो माँ की प्रतिमा की आँखेँ भी आँसुओं से भर गयी थी। ऐसा हर बार ही होता
था। शायद धूप-दीप के धुएँ की वजह से। मगर मुझे बचपन से ही लगता था की माँ को भी
दुख होता है जब वो हमसे विदा लेती हैं और इसलिए उनकी आँखें भर आती हैं। जब
पूजा-कमिटी के अन्य सदस्यों के साथ प्रतिमा को उठा कर हम नदी-तट पर ले आए तो मैंने
आखिरी बार माँ के चेहरे को देखा और मानो उस निर्जीव प्रतिमा ने मुझसे कुछ कहा। माँ
के नदी में डूबते डूबते और नदी की धार में पूर्णतया विसर्जित होते होते मुझे एक
राह नज़र आ गयी थी।
मैं
शीघ्र घर लौटा और अपनी माँ से ये सारा वृतांत कह सुनाया। मुझे आशा नहीं थी कि मेरी
भावनाओं को माँ इतनी सरलता से समझ लेंगी। आखिर मैं उनका की तो बेटा था। जो राह
मुझे अंधकारमय प्रतीत हो रहा था उसमें माँ एक प्रकाश-पुंज बन कर आई। माँ ने मुझे
सलाह दी कि हमारे वापस चले जाने के बाद वो भी बिलकुल अकेली ही हो जाती है। सो, गौरी साथ में रह कर घरेलू कामों में उनका
हाथ बंटा सकती है और शिक्षा का जो अवसर उसे बचपन में नहीं मिल पाया, उसे वो अब प्राप्त कर सकती है। घर पर अब
भी सारी कक्षाओं की पुस्तकें मौजूद हैं और जब वो पुस्तकें दुबारा खुलेंगी तो माँ-पापा
को भी हमारे बचपन को दुबारा देखने का सुख मिलेगा। पापा अब पहले की तरह मोहल्ले के बच्चों
को पढ़ाने के लिए समय नहीं दे पाते और यह कमी भी गौरी के आने से दूर हो जाएगी। उसके
बच्चे की भी अच्छी देख-भाल हो जाएगी। इतने सारे रास्ते माँ ने झट खोल दिये मेरे सामने।
मेरी तो प्रसन्नता का ठिकाना न था। एक ओर माँ की इस करुणा ने मेरे हृदय को प्रफुल्लित
कर दिया था, दूसरी ओर बचपन से गौरी को शिक्षा का अवसर देने का जो मेरा
सपना था, वो पूरा होता देख मैं गद-गद
हो रहा था। जो बात बचपन में मेरी माँ मज़ाक में उड़ा देती थी आज उसने वही बात कितनी गंभीरता
से लिया और कितनी सहजता से उसने मेरी यह हार्दिक इच्छा पूर्ण कर दी। मैंने मारे प्रसन्नता
के अपनी माँ को हृदय से लगा लिया।
मेरी
ट्रेन के आने में अभी दो घंटे शेष थे। मैंने झट-पट अपना सामान पैक किया और दौड़ पड़ा
अपनी बचपन की मुँह-बोली बहन की झोपड़ी की तरफ। आज मेरे अंदर का बालक पुनः जीवित हो गया
था। रास्ते में पूजा-पंडाल दिखाई दिया जो अब सूना पड़ा था। माता विसर्जित हो चुकी थी
और अपने घर जा चुकी थी। मगर मैं फिर भी पंडाल के अंदर गया और पूजा-स्थल को पुनः प्रणाम
किया। चिक्की वाले की बेटी को आज मैं थोड़ा भी सहारा दे पाया, इस बात के लिए मैंने दुर्गा-माँ को कोटि-कोटि
धन्यवाद दिया। शायद गौरी की गुहार सुन ली गयी थी और विसर्जन होते होते माता ने गौरी
के लिए एक मार्ग प्रशस्त कर दिया था। मेरे जरिये।
मैं
पंडाल से बाहर निकला और फिर दौड़ चला- गौरी को मनाने।