कॉलेज में चार साल बिताने के बाद आज मैं घर लौटा। कोचीन के रेलवे स्टेशन पर सारे दोस्त आख़िरी बार साथ जुटे थे और साथ तस्वीरें ली थीं। फिर ट्रेन पर दो दिन का सफ़र कैसे बीता मुझे कुछ याद नहीं। ज़्यादातर समय ऊपर के बर्थ पर सो कर ही काट दिया।
घर पहुंचने पर माँ-पापा का स्वाभाविक प्यार और सत्कार्। छः महीनों के बाद उनका सान्निध्य पा कर मन थोड़ा हल्का हुआ। पता नहीं क्यूं माँ थोडी थोडी देर के बाद मुझे निहारती थी और उनकी आँखें छलक आती थीं। मैं भी उन दोनों का साथ पा कर बहुत ही उल्लासित और सन्तुष्ट था मानो एक पथ-भ्रमित पखेरू अपने घोंसले में वापस आ गया हो। देर रात (घर में 10 बजे देर रात हो जाती है) तक हम तीनों बातचीत और खिलखिलाहट के सागर में गोते लगाते रहे। फिर मुझे उनके पलंग पर उनके साथ ही सोने को कहा गया मानो मैं अब तक उनका वही लाडला सा बालक हूँ। अपने पुत्र के प्रति माँ-बाप के हृदय में इतना प्रेम भरना उपर वाले की सर्वश्रेष्ठ माया में से एक है।
रात
माँ पापा के सोने के बाद झूठ-मूठ बंद की हुई मेरी आँखें खुलीं और न जाने कहाँ से दिल मे एकाएक कॉलेज के दोस्तों की यादें उमड़ आई। आज से दो-तीन दिन पहले इस समय हम लोग रवि के लंगड़े बिस्तर पर (जिसका एक पाया टूट चुका था और उसकी जगह पुरानी किताबों ने बिस्तर को सहारा दिया था) बैठे या तो ताश खेलते थे या परीक्षा होने पर सिर धुनते थे और नोट्स तलाशते थे। दोस्तों की खिलखिलाहट अचानक मेरे कानों में गूंजी और मस्तिष्क से होते हुए रोम-कूपों तक आ पहुंची। मैं भय-मिश्रित आश्चर्य से रोमांचित हो चुपचाप माँ पापा के बीच से उठा और दूसरे कमरे में नाइट लैम्प जला कर शीशे के सामने बैठ गया।
पहले तो शीशे मे खुद का अक्स दिखाई दिया फिर पता नहीं कहाँ से उसमें रवि, कुंदन, सीमांत, पंकज, सुमित, मनीष, आलोक आदि दोस्त आकर मेरे पीछे खड़े हो गए। वो मेरी ओर देख रहे थे और मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे।
अचानक शीशे के अंदर का मंज़र सजीव हो उठा और हम सारे लोग कोचीन के चेराई समुद्र-तट पर एक नारियल को उछालते और उसे लपकने के लिए एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते दिखाई पड़े। सूर्यास्त की वेला थी और उस नारियल को इधर-उधर फेंक कर उसे लपकने के बहाने हम तट पर पहुंची लड़कियों की तरफ़ नज़रें भी फिरा रहे थे। हम सब लोगों और समुद्र से दूर बैठा पंकज फ़ोन पर बात कर रहा था। मुझे आज तक पता नहीं कि वो फोन पर किससे घंटों बातें करता था। नाम तो पता नहीं पर इतना तो तय था कि वो मेरी भाभी थी। सूर्यास्त के बाद हम लोग कमरे में वापस आये और सारी मस्ती यह सुन कर काफ़ूर हो गयी कि आज मेस में फ़िर आलू-गोभी की सब्जी और रोटी है खाने को। मनीष ने तो मेस वाले के खानदान को कुछ अच्छे शब्द भी कह डाले और उसके अदमनीय क्रोध को शान्त करने के लिए मैनें ब्रह्मास्त्र चलाया और कहा –“हम लोग आज राजू ढाबा में खाना खायेंगे'”। फ़िर क्या, राजू ढाबा मे जो संग्राम छिड़ा, वो दर्जनों तन्दूरी रोटियों और कई दाल मख़ानी और पनीर के प्लटों की शहादतों के बाद ही शांत हुआ। विजयी हो कर और डकार लगाते हुये हम लोग वापस पहुँचने ही वाले थे कि सुमित ने कहा, “यार! सोडा-लाईम हो जाए”। सर्वसम्मति से सोडा-लाईम को डेज़र्ट के रूप में स्वीकार कर के हम वापस अपने अपने कमरे में लौटे। मैं अपनी दिनचर्या और टाईमिंग के मुताबिक़ अपने कम्प्यूटर पर बैठा और सामाजिक वेब-साइट्स पर सामजिक होने की कोशिश में लग गया। एक साथ दर्ज़न भर चैट-बॉक्सेस को सम्भालते सम्भालते जब डेढ़-दो घंटे बीते तो थकावट महसूस हुई तो कमरे के बाहर आया और सीमांत और कुंदन को गलियारे में क्रिकेट खेलता पाया। उनके गेंद का मेरे पास आना शायद एक ध्रुव-सत्य बन गया था और उतना ही सत्य मेरा उनको भला-बुरा कहना हो चला था। रवि के उसी टूटे बिस्तर पर सुमित, पंकज, मनीष और रवि ताश की बाज़ी लगाये और कुंडली मारे बैठे पड़े थे। वातावरण उतना ही गंभीर था जितना वाघा बॉर्डर पर हिंदुस्तान और पाक़िस्तान के जवानों के बीच होता है, या शायद उससे भी ज़्यादा। तभी रवि चिल्लाया-“वो मारा पापड़ वाले को” और उसे शायद एक और फ़तेह हासिल हुई।
रात के 11 बज़े, और घर के दो जवान पंकज और रवि RIM का मोबाइल ले कर अविलंब छत पर यूं जा पहुँचे मानो अल्प दबाव वाले जगह पर आस-पास की वायु दौड़ पड़ी हो वातावरण में सन्तुलन लाने ।ख़ैर, अब अगले दो-तीन घंटे वो हमारे बीच से अनुपस्थित होंगे और इन्द्र-धनुष पर सवार हो कर ना जाने कहाँ कहाँ विचरण करेंगे।
बाक़ी बचे हम लोग गफ़ूर की दुकान पर पहुँचे और अपनी अपनी पसंद और लत के अधीन कोई जूस तो कोई चाय, कोई सिगरेट और कोई कोका-कोला का सेवन करने लगे। यह रात उन कुछ भयावह रातों में से नहीं थी जिनकी कालिमा में हमे दर-दर भटक कर नोट्स और गेस-पेपर जुगाड़ने और किस्मत एव इंजीनियरिंग को बारंबार कोसने पर मज़बूर करती थी। सो, धीरे धीरे कर के कोई अपने बिस्तर पर तो कोई किसी और के, कोई फ़ोन पर बातें करते हुए तो कोई बिना कमरे की बत्ती बंद किये नींद और सपनों की दुनिया में खोते गये। और मैं, मैं अन्य रातों की तरह कोई उपन्यास पढ़ते पढ़ते।
दिन
मेरी नींद सुबह के सात बजे टूट गयी जब पापा ने म्यूज़िक सिस्टम पर अनुप जलोटा के भजन बजा दिये। जब कॉलेज में था तब इस बात का पता किसी को न रहता था कि नींद कितने बजे टूटेगी। प्रायः नींद तभी टूटती थी जब आलोक अपने कम्प्यूटर पर फ़ुल वॉल्यूम में Akon, Eminem आदि के गाने बजाता था। मैं समझ नहीं पाया था कि उसे इन कलाकारों में अभिरुचि थी या इनसे नफ़रत थी।
मैं अभी आँखें ही मल रहा था कि माँ चाय ले कर पहुँच गयी। ‘बेड टी’ एक सुखद किंतु पूर्णतः दुर्लभ विचार हुआ करता था कॉलेज में। जैसे-तैसे आपस में पैसों का बटवारा कर के हम लोग कैंटीन जाते थे चाय-नाश्ता करने।
चाय पी कर जब माँ-पापा के पास आया तो पापा ने नहा लेने को कहा लेकिन वो जवाब मेरी ज़बान तक आ कर रुक गया जो हर ‘नहा लो’ कहने वाले सख्श को दिया करता था-“युवा हो, जल संसाधन का बचाव करो, देश की उन्नति करो !!”
बाथरूम में नहाते समय आदत के मुताबिक़ आतिफ़ के गाने ऊँची आवाज़ मे गाने लगा। लेकिन घर मे व्याप्त शांति ने मेरे शोर को शरण नहीं दी और मेरी आवाज़ चारों तरफ़ गूंजने लगी और आखिरकार मुझे गाना बन्द करना पड़ा।
पापा ने स्कूल जाते वक़्त मेरी हमेशा की पसंदीदा चैनल ‘कार्टून-नेट्वर्क’ लगा दी टेलीविज़न पर। मगर शायद इन चार सालों में मेरी पसंद बदल गयी और चैनल बदलते बदलते जब मैं थक गया तो रिमोट पटक दिया- ‘आजकल टेलीविज़न पर कुछ भी ढंग का नहीं दिखाते ये लोग’। दूरदर्शन को कोसने के बाद मैं माँ के पास पहुँचा जो रसोई में खाना पका रही थी। लम्बी देर गप्पें लड़ाई हमने और बात ही बात में माँ ने मुझसे हर एक लड़की का ब्यौरा निकलवा लिया जिससे मैनें बात तक की हो।
समय पर खाना लग गया टेबल पर और मुझे खिलाने के बाद माँ ने भी खाया। उनकी आदत है दोपहर का खाना खाने के बाद थोड़ी देर आराम करने की।
मैं दिन में कभी नहीं सोता।
कॉलेज मे इस समय क्लास मे होता या कैंटीन मे।
अकेलापन महसूस हुआ तो लैपटॉप पर कॉलेज की तस्वीरें और वीडियो देख कर यादें ताज़ा करने लगा।
जैसे तैसे दिन बीता और साँझ हुई। मैं अपने पुराने दोस्तों से मिलने उनके घर गया । मगर पता चला कि कोई बैंगलोर गया है तो किसी के लौट कर आने की संभावना ही नहीं है दिसंबर तक्।
एहसास हुआ कि सिर्फ़ मेरी ही ज़िन्दगी ने बदलाव नहीं झेले हैं।
अंधेरा घिरने पर जब घर लौटा तो देखा कि पापा मेरे लिए लगान फ़िल्म की सीडी ले आए थे।एक ऐसी चीज़ जिसके लिये मुझे बचपन में पिटाई भी लगी थी जब मैं बिना घर में बताये दोस्तों के साथ लगान फ़िल्म देखने सिनेमाहॉल चला गया था।
ख़ैर, हम तीनों लगान फ़िल्म और आमिर के अभिनय का आनंद उठा ही रहे थे कि अचानक मेरा मोबाईल बज उठा जिसका रिंगटोन मैनें ‘भींगे होंठ तेरे’ से बदल कर ‘नोकिया ट्यून’ कर दिया था घर लौटने पर। मोबाइल में देखा- “KUNDAN CALLING”…
मैं लगान फ़िल्म से नाता तोड़ मोबाईल हाथ में लेकर दौड़ता हुआ सीधा छत पर जा पहुँचा और जैसे कॉल उठाया, उधर से कुंदन की चित-परिचित आवाज़ आई- “कैसा है, बेटे?”
इतनी अवमाननापूर्ण संबोधन में भी छिपे स्नेह और आत्मीयता को स्वीकार कर मैनें भी उसी स्वर में जवाब दिया। पता चला कि कॉल-कांफ्रेंसिंग में सुमित, पंकज, सीमांत, रवि, आलोक, मनीष आदि दोस्त भी मौज़ूद हैं। मैं दोस्तों से बातें करने में और आकाश में उपस्थित चन्द्रमा और चप्पे-चप्पे को व्याप्त करती उसकी चान्दनी की शीतलता में डूबता गया।
इतने मे फोन पर रवि ने कह दिया –“यार, तुम लोगों की बहुत याद आ रही है।”
मुझे पता था कि सिर्फ़ मैं ही नहीं रो रहा था।
अभी तो केवल एक ‘दिन-रात’ ही बीते हैं। कितने ही एकाकी दिन और शून्य निशाएँ मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं…